रविवार, 15 मई 2011

पुराने व बेकार हो चुके रिवाजों को बदलें.

क्या हम अभी भी आने सड़े गले रीति-रिवाजों को पकडे रहेंगे और कभी भी उन्हें बदलें की दिशा में नहीं सोचेंगे? कई बार तो ऐसा ही प्रतीत होने लगता है। इसका कारण भी है। जब कभी भी जिस किसी ने किसी भी बेकार की बेड़ियों को तोड़ने की कोशिश की उसे अथवा उन्हें ही तथाकथित परम्परावादियों की मनमानी का शिकार होना पड़ा। यातनाएं झेलनी पडी। इस बात से असहमत होने का प्रश्न ही नहीं उठता कि परम्पराएं किसी भी समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक हैं। किन्तु जिन परम्परों का अब औचित्य ही नजर नहीं आता, उन्हें ढोते रहने का कारण भी तो सही नहीं लगता है। अपनी झूठी शान के लिए इस तरह की परम्पराओं की आड़ में किसी भी तरह का शोषण, दोषण अथवा/और उत्पीडन भी तो समझ से परे है। समय के अनुसार परम्पराओं में परिवर्तन होते रहने से समाज प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है। बाबा अदम के ज़माने के रूढ़िवादी व अंधविश्वास से भरे रिवाजों को बदलने में ही सबका हित है।

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