शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार और नैतिकता

देश में तरह तरह के भ्रष्टाचार के मामले सामने आते देखकर ऐसा लगता है कि हमारा पूरा का पूरा तंत्र ही चरमरा गया है। नैतिकता जैसी बातें केवल आदर्शों के साथ दम तोड़ चुकी हैं। स्वार्थ पिपासा इतनी बढ़ गयी है कि पैसा सबसे बड़ा हो गया है। न तो किसी के लिए किसी के पास समय है और न ही अपने और पराए का भेद ही नजर अत है। बस पैसे के साथ ही अपनापन है और पैसे के बिना सब परायापन नजर आता है। मन अपने दूध की कीमत मांग लेती है और बेटा अपने द्वारा माँ के लिए किए काम की मजदूरी अथवा फीस मांग रहा है।कैसा कलियुग अ गया है। अब आगे क्या होगा, कौन जाने । लेकिन इसी दिशा में हुआ तो निश्चित रूप से अनिष्टकारक और कष्टदायक तो होना तय है।

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

प्रकृति के साथ मिलकर चलने में ही स्वास्थ्य है.

स्वास्थ्य के प्रति लोगों का नजरिया निरंतर बदलता रहता है। पहले लोग स्वास्थ्य के रक्षण के लिए प्रकृति के ज्यादा से ज्यादा करीब रहने की कोशिश किया करते थे। आज प्रकृति से दूर होते जा रहे मानव ने अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के भ्रम को दवाइयों व शल्य चिकित्सा में ढूंढना शुरू किया हुआ है। प्रकृति के अनुकूल अपनी प्रवृति को ढलने की खिल्ली उड़ाने वाले यह भूल जाते हैं कि यह प्रकृति ही है, जिसको लाख जतनों के बावजूद किसी भी तरह की सीमा में बांधना असंभव है। जितनी इलाज बढे उससे अधिक रोग बढे। यह सिलसिला अब भी निर्बाध जरी है। और यों ही चलता रहेगा।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

जनता को सही अगुआ मिले तो..

अभीहाल में तेजी से बदल रहे घटनाक्रम में कुछ ऐसे तथ्य उजागर हुए हैं जिन्होंने पूरे देश को आंदोलित कर दिया है। बाबा रामदेव की स्वाभिमान यात्रा से लेकर अन्ना हजारे के धरने तक और उनके बाद भी इस तरह का सिलसिला जारी है। जनमानस के लिए ये बातें बहुत मायने रखती हैं। राजसत्ता से लेकर भ्रष्ट तंत्र सत्ता तक न जाने कितने रोग हैं जो देश को नासूर की तरह कमजोर किए जा रहे हैं। सत्ता में बैठे लोग और कुर्सी पर काबिज बाबू इस नासूर को पाटने के रास्ते में स्वार्थवश तरह तरह के रोड़े अटका रहे हैं। जनता अपने सामने हो रहे इस खेल को मूकदर्शक बन देख रही है। यह उनकी विवशता भी हो सकती है और किंकर्तव्य विमूढ़ता भी। लेकिन जब भी जनता को जगाने वाला कोई अगुआ सही दिशा में कदम मजबूती के साथ बढ़ाएगा जन-जन उसके साथ जुड़कर क्रांति ला देगा इसमें कतई शक नहीं है। अन्ना हजारे ने ऐसे ही एक प्रयास से केंद्र सरकार की नींद हरम कर दी और नया लोकपाल बिल बनाने के लिए समिति गठित कर दी गयी। अब देखना यह है कि यह समिति सभी तरह के दबावों तथा अवरोधों के साथ किस दिशा में और कितना सरता कार्य कर पाएगी।

रविवार, 24 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव। दोनों ही हमारे भ्रष्ट राजनेताओं व रिश्वतखोर अधिकारियों के लिए खतरे की घंटी हैं। यही कर्ण है कि सरकारी व सत्तासीन पार्टी की ओर से इनके खिलाफ हर ऐसा बयान देने वालों की कमी नहीं है जिन्हें इनके जबरदस्त जनांदोलन से खतरा महसूस हो रहा है। आए दिन कोई न कोई नया बयान गड़े मुर्दे उखाड़ने की हर मुमकिन कोशिश करता हुआ इन जन आन्दोलन के नायकों को किसी न किसी तरह भ्रष्टाचार से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में जोड़ने की जुगत भिड़ाता है। पर इनमें किसी तरह का दम न होने ऐसे बयान स्वयं ही अपनी मृत्यु का ग्रास बन रहे हैं। सो ऐसे अवसर का उपयोग ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग करके किया जाना चाहिए, न कि ऊर्जा के अपव्यय का रास्ता चुनना चाहिए।

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

नारी और समाज

अब वह समय हवा हो गया जब नारी और चारदीवारी का साथ निरंतर बन रहता था। घर की चारदीवारी के बाहर की दुनिया से उनका नाता न के बराबर न होने की बातें कल्पना की चीज बन कर रह गयी हैं। नारी की स्वतंत्रता की बातें बड़े जोर शोर से उठ रही हैं। इनका असर भी चहुँ ओर दृष्टिगोचर हो रहा है। अपने हकों की लड़ाई लड़ने में नारियां पुरुषों को पछाड़ रही हैं। नारी रक्षा व नारी हितों की पैरवी करने वालों की बाढ़ सी आई हुई है। सरकारी स्तर पर भी महिला आयोग जैसी शक्तिसंपन्न संस्थाएं कार्यरत हैं। कई बार तो नारी की सहायता के नाम पर कुछ इस तरह की घटनाएं हो जाती हैं कि पुरुषों पर दया आने लगती है। नारी सम्मान के नाम पर कई बार बेगुनाह भी फंसा दी जाते हैं। ऐसे मामलों में व्यक्तिगत खुन्नस ज्यादा प्रभावी देखी जाती है। महिला उत्पीडन रोकने के लिए बनाए गए क़ानून अपने दुरुपयोग के कारण आलोचना का कारण बन रहे हैं। कानूनविदों को व सरकार को इस ओर विशेष ध्यान देना होगा।

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

दिग्भ्रमित होती किशोरावस्था

आज बच्चे किशोरावस्था में पहुँचते पहुँचते काफी अडवांस हो रहे हैं। वे उन सभी अनुभवों को कर लेना चाहते हैं जो उन्हें युवावस्था में भी धीरे धीरे व संभालकर करने चाहिएं। इतना ही नहीं, इस अवस्था में वे कुछ तो ऐसी बातें भी स्वत: सीख रहे हैं जो कि युवावस्था में भी एक निश्चित अवस्था के बाद किए जाने का प्रावधान है। सैक्स के मामले में तो सारी हदें पर होती लग रही हैं। मन-मर्यादा को तक पर रखा कर नैतिकता को ठेंगा दिखाते हुए जो कुछ होरहा है उससे यह स्पष्ट लगाने लगा है कि इस अवस्था में किसी की परवाह करना उन्हें गवारा नहीं। इस कारन समाज में स्वेच्छाचार बढ़ रहा है। युवा पीढी दिग्भ्रमित हो रही है। वह दिशाहीन व दशाहीन होती जा रही है। परिवार बिखर रहे हैं। परम्पराएं दम तोड़ रही हैं। मर्यादाएं तहस नहस हो रही हैं। चरित्र के नाम को भुला देने जैसी स्थिति आती जा रही है। समाज में व्यभिचार तथा स्वेच्छाचार बढ़ रहा है। एन्जॉय करने के नाम पर सब तरह की वर्जनाएं टूट रही हैं।

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

हर घर की बीमारी

आज के ज़माने में कोई भी घर ऐसा नहीं है जिसमें कभी भी कोई कहा सूनी न हुई हो। यह स्वाभाविक भी है और जरूरी भी। ऐसा होने के कारण ही हम एक दूसरे के साथ जिन्दगी की असलियत को निभाना सीखते हैं। इसीसे हम जीवन के मूल्यों को समझते हैं। विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों का सामना करने की शक्ति व ऊर्जा का संचार होता है और जीवन में आने वाली हर कठिनाई से पर पाना सरल हो जाता है। लेकिन यह यहीं तक सीमित रहे तो ठीक है । इससे आगे बढ़ जाना शुभ संकेत नहीं होता क्योंकि इससे मनमुटाव बढ़ जाता है और सदा के लिए अलगाव आ जाता है। ऐसा होना नहीं चाहिए क्योंकि इससे सामाजिक ताना बाना तहस नहस होने लगता है और पारस्परिक सदभाव संशय में बदलकर समाज के लिए घटक बन जाता है ।