यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि मनुष्य अपने लबादे में अनेक कुकृत्य करता है और उनका भंडाफोड़ होने से डरता है. इसके साथ-साथ वह दूसरों की बेइज्जति करने का कोइ मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहता है. यह भरी विरोधाभास सभी जगह सभी जाति व समुदायों में सामान रूप से पाया जाता है. सब इस बात को बुरा बताते भी हैं और ऐसा करने वालों को अच्छा नहीं मानते हैं. फिर भी यह बदस्तूर जारी है. इसे दोहरे चरित्र का सबूत नहीं तो फिर क्या कहा जाएगा?
मंगलवार, 15 नवंबर 2011
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